• क्या फर्क पड़ता है ?

    क्या फर्क पड़ता है ? Short motivational story

    • 2021-04-06 01:47:56
    • Puplic by : Admin
    • Written by : Unknown
    एक शहर में एक बहुत अमीर व्यक्ति रहता था। उसका नाम तो था धनीमल लेकिन था वह बेहद कंजूस। उसका कहना था कि अगर आप अपना पैसा अपने पास रखेंगे तो सबको पता चल जाएगा कि आपके पास बहुत पैसे है। फिर चोर-डाकू आपके पीछे पड़ जाएँगे और सारा पैसा लूटकर ले जाएँगे। इसलिए वह अपना सारा पैसा छिपाकर रखता था और खुद एक बहुत गरीब व्यक्ति के समान रहता था। पैबंद लगे कपड़े, घिसे हुए जूते, रुखा-सूखा खाना, यह सब देखकर लोग उसे भिखारी समझते थे। जिनको पता था कि वह धनवान है, वे उसे कंजूस कहकर बुलाते थे। एक दिन धनीमल को अपनी संपत्ति को चोरों से बचाने का एक बहुत बढ़िया उपाय समझ में आया। उसने सारे पैसों से बहुत-सा सोना खरीद लिया और फिर सारे सोने को पिघलाकर उसका एक बड़ा-सा गोला बना लिया। उसने शहर के बाहर जाकर एक पुराने कुँए के पास एक गड्ढा खोदा और सोने का वह गोला उसमें डालकर गड्ढा बंद कर दिया। वह अब निश्चिंत था। अपनी तसल्ली के लिए वह रोज रात को आकर गढ्ढे में देख लेता था कि उसका सोना वहाँ है या नहीं। उसे विश्वास था कि कोई भी चोर इस जगह के बारे में नहीं जान पाएगा। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। धीरे-धीरे पुरे शहर में यह चर्चा होने लगी कि धनीमल रात में शहर के बाहर जाकर कुछ करता है। एक रात जब उसने गढ्ढा खोदकर देखा तो सोना वहां से गायब था। उसे गहरा सदमा लगा और वह चीखकर रोने लगा। उसके रोने की आवाज सुनकर बहुत-से लोग वहाँ आ गए। धनीमल रो-रोकर अपना दुःख बताने लगा। तब उसके एक पड़ोसी से उसे कहा, धनीमल तुम एक भारी पत्थर इस गढ्ढे में रख दो और समझ लो कि वही तुम्हारा सोना है। यह सुनकर धनीमल को बहुत गुस्सा आया। तुम मेरे सोने को पत्थर जैसे बता रहे हो। वह बोला। देखो धनीमल, वह सोना तुम कभी इस्तेमाल तो करते नहीं थे। एक पत्थर की तरह यहां उसे दबाकर रख दिया था तो फिर यहां सोना हो या पत्थर क्या फर्क पड़ता है ? उसका पड़ोसी बोला। बात तो ठीक ही थी। धनीमल ने बहुमूल्य सोने को पत्थर के समान मूल्यहीन बना दिया था। उसके बाद धनीमल ने मेहनत करके फिर पैसे कमाए लेकिन अब वह कंजूस नहीं रहा था। अपने पैसे को वह अपने ऊपर और दूसरे लोगों की सहायता के लिए खर्च करता था।

    Bonus Story - घमंड कुल्हाड़ी हुई निरुत्तर


    एक बार कुल्हाड़ी और लकड़ी के एक डंडे में विवाद छिड़ गया। दोनों स्वयं को शक्तिशाली बता रहे थे। हालाँकि लकड़ी का डंडा बाद में शांत हो गया, किन्तु कुल्हाड़ी का बोलना जारी रहा। कुल्हाड़ी में घमंड अत्यधिक था। वह गुस्से में भरकर बोल रही थी। तुमने स्वयं को समझ क्या रखा है ? तुम्हारी शक्ति मेरे आगे पानी भरती है। मैं चाहूँ तो बड़े-बड़े वृक्षों को पल में काटकर गिरा दूँ। धरती का सीना फाड़कर उसमें तालाब, कुआ बना दूँ। तुम मेरी बराबरी कर पाओगे ? मेरे सामने से हट जाओ अन्यथा तुम्हारे टुकड़े-टुकड़े कर दूंगी । लकड़ी का डंडा कुल्हाड़ी की अँहकारपूर्ण बातों को सुनकर धीरे से बोला - तुम जो कह रही हो, वह बिल्कुल ठीक है, किन्तु तुम्हारा ध्यान शायद एक बात की और नहीं गया। जो कुछ तुमने करने को कहा है, वेशक तुम कर सकती हो, किन्तु अकेले अपने दम पर नहीं कर सकती। कुल्हाड़ी ने चिढ़कर कहा, क्यों ? मुझमें किस बात की कमी है ? डंडा बोला - जब तक मैं तुम्हारी सहायता न करूं, तुम यह सब नहीं कर सकती हो | जब तक मैं हत्था बनकर तुममें न लगाया जाऊं, तब कोई किसे पकड़कर तुमसे ये सारे काम लेगा ? बिना हत्थे की कुल्हाड़ी से कोई काम लेना असंभव है। कुल्हाड़ी को अपनी भूल का एहसास हुआ और उसने डंडे से क्षमा मांगी। कथासार यह है कि दुनिया सहयोग से चलती है। जिस प्रकार ताली दोनों हाथों के मेल से बजती है, उसी प्रकार सामाजिक विकास भी परस्पर सहयोग से ही संभव होता है। 



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