 
						 एक बार एक राजा शिकार के उद्देश्य से अपने काफिले के साथ किसी जंगल से गुजर रहा था. दूर-दूर तक शिकार नजर नहीं आ रहा था, वे धीरे धीरे घनघोर जंगल में प्रवेश करते गए. अभी कुछ ही दूर गए थे की उन्हें कुछ डाकुओं के छिपने की जगह दिखाई दी. जैसे ही वे उसके पास पहुचें कि पास के पेड़ पर बैठा तोता बोल पड़ा – पकड़ो पकड़ो एक राजा आ रहा है इसके पास बहुत सारा सामान है लूटो लूटो जल्दी आओ जल्दी आओ. तोते की आवाज सुनकर सभी डाकू राजा की और दौड़ पड़े. डाकुओ को अपनी और आते देख कर राजा और उसके सैनिक दौड़ कर भाग खड़े हुए. भागते-भागते कोसो दूर निकल गए. सामने एक बड़ा सा पेड़ दिखाई दिया. कुछ देर सुस्ताने के लिए उस पेड़ के पास चले गए , जैसे ही पेड़ के पास पहुचे कि उस पेड़ पर बैठा तोता बोल पड़ा – आओ राजन हमारे साधु महात्मा की कुटी में आपका स्वागत है. अन्दर आइये पानी पीजिये और विश्राम कर लीजिये. तोते की इस बात को सुनकर राजा हैरत में पड़ गया , और सोचने लगा की एक ही जाति के दो प्राणियों का व्यवहार इतना अलग-अलग कैसे हो सकता है. राजा को कुछ समझ नहीं आ रहा था. वह तोते की बात मानकर अन्दर साधु की कुटिया की ओर चला गया, साधु महात्मा को प्रणाम कर उनके समीप बैठ गया और अपनी सारी कहानी सुनाई. और फिर धीरे से पूछा, “ऋषिवर इन दोनों तोतों के व्यवहार में आखिर इतना अंतर क्यों है.”साधु महात्मा धैर्य से सारी बातें सुनी और बोले ,” ये कुछ नहीं राजन बस संगति का असर है. डाकुओं के साथ रहकर तोता भी डाकुओं की तरह व्यवहार करने लगा है और उनकी ही भाषा बोलने लगा है. अर्थात जो जिस वातावरण में रहता है वह वैसा ही बन जाता है कहने का तात्पर्य यह है कि मूर्ख भी विद्वानों के साथ रहकर विद्वान बन जाता है और अगर विद्वान भी मूर्खों के संगत में रहता है तो उसके अन्दर भी मूर्खता आ जाती है. इसिलिय हमें संगति सोच समझ कर करनी चाहिए.”
 Bonus Story - सबसे बड़ा पुण्य क्या है
एक  बहुत बड़ा माहन राजा प्रजापालक था,  वह हमेशा प्रजा के हित में  कार्य  प्रयत्नशील रहता था. वह इतना बड़ा  कर्मठ राजा था कि अपना सुख, ऐशो-आराम सब छोड़कर सारा समय जन-कल्याण में ही लगा देता था . यहाँ तक कि जो मोक्ष का साधन है अर्थात भगवत-भजन, उसके लिए भी वह समय नहीं निकाल पाता था.
एक दिन  सुबह राजा वन की तरफ भ्रमण करने के लिए जा रहा था कि उसे एक चित्रगुप्त  के दर्शन हुए. राजा ने चित्रगुप्त  को प्रणाम करते हुए उनका अभिनन्दन किया और चित्रगुप्त  के हाथों में एक लम्बी-चौड़ी पुस्तक देखकर उनसे पूछा- “ महाराज, आपके हाथ में यह क्या है?” चित्रगुप्त  बोले- “राजन! यह हमारा बहीखाता है, जिसमे सभी हरि  भजन करने वालों के नाम हैं.” राजा ने निराशायुक्त भाव से कहा- “कृपया देखिये तो इस बुक  में कहीं मेरा नाम भी है या नहीं?”चित्रगुप्त महाराज किताब का एक-एक पृष्ठ देखने  लगे, परन्तु राजा का नाम कहीं भी नजर नहीं आया. राजा  चिंतित हो गया  चित्रगुप्त ने राजा को चिंचित  देखकर कहा- “राजन  आप चिंतित न हो, राजा आपके  ढूंढने में कोई भी कमी नहीं है. वास्तव में ये मेरा दुर्भाग्य है  मैं हरि भजन-कीर्तन के लिए समय नहीं निकाल पता हूँ, इसीलिए मेरा नाम  किताब में नहीं है.” राजा ने बहुत दुःखी हो गया उसे आत्म-ग्लानि-सी उत्पन्न हुई, फिर भी  उसके  बावजूद राजा  नजर-अंदाज कर दिया और पुनः  दूसरे लोगो की परोपकार की भावना से  सेवा करने में लग गए. एक वर्ष  बाद राजा फिर सुबह सुबह  जंगल  की तरफ भ्रमण  के लिए निकले तो उन्हें वही चित्रगुप्त  का  दर्शन हुए, इस बार भी उनके हाथ में एक पुस्तक थी.  रंग और आकार में काफी  भेद भाव  था, और यह पहली वाली से बहुत  छोटी थी. राजा ने फिर उन्हें नमस्कार  करते हुए पूछा-  आज कौन सा बहीखाता आपने हाथों में लिए हुए हो। चित्रगुप्त  ने कहा- “राजन! आज के बहीखाते में उन लोगों का नाम लिखा है जो भगवान को सबसे अधिक प्रेम  हैं !” “कितने भाग्यशाली होंगे वे लोग? मन में राजा ने कहा- निश्चित ही वे दिन रात भगवान् का -भजन कीर्तन  में लीन रहते होंगे !! राजा ने कहा - क्या इस पुस्तक में मेरे राज्य का  किसी नागरिक का नाम  है ? ”
प्रजापालक प्रेम प्रिय राजा था। चित्रगुप्त - ने बहीखाता खोला , राजन ये आश्चर्य की बात  पहले पन्ने पर पहला नाम राजा का ही था। प्रजापालक राजा - आश्चर्यचकित होकर पूछा-चित्रगुप्त  मेरा नाम इसमें कैसे लिखा हुआ है, मैं तो पूजा पाट न मंदिर  कभी-कभार ही जा पाता  हूँ ? चित्रगुप्त  ने कहा- “ महाराज! इसमें आश्चर्य की बात क्या है?  लोग निष्काम भाव होकर गरीब  दुःखियों का सेवा करते हैं, जो मनुष्य इस  संसार के उपकार में अपना जीवन निसार करते हैं. जो मानव मुक्ति का लोभ भी त्यागकर भगवान् के निर्बल संतानो की मुसीबत में सहायता का  योगदान देते हैं. वही  त्यागी महा मानव का भजन कीर्तन स्वयं ईश्वर करता है. ऐ राजन! आप पश्चाताप न पूजा-पाठ नहीं करता, लोगों की सेवा करे असल में ईश्वर की  ही पूजा करता है. जो  परोपकार और निःस्वार्थ लोकसेवा किसी भी उपासना से बढ़कर इस दुनिया में और कोई पुण्य नहीं  हैं. वेदों का उदाहरण देते हुए चित्रगुप्त ने कहा- “कुर्वन्नेवेह कर्माणि'' जिजीविषेच्छनं'' समाः एवान्त्वाप ''नान्यतोअस्ति' व कर्म लिप्यते नरे..” अर्थात ‘ ईश्वर कहते है , हे  मानव  कर्म करते हुए - तुम सौ वर्ष जीने की(लालसा)ईच्छा करो पर  कर्मबंधन में आप  लिप्त हो जाओगे.’ महाराज ! ईश्वर दीनदयालु हैं. उन्हें खुशामद नहीं भाती - ''बल्कि  लोगो का आचरण भाता है..
सच्ची निष्काम भक्ति राजन  यही है, दुसरो की  परोपकार करो.   ईश्वर दीन-दुखियों का पर  हित-साधन करो. अनाथ, गरीब , निसहाय, विधवा, किसान व निर्धन प्राणी आज के के युग में  अत्याचारियों से सताए जाते हैं इनकी यथाशक्ति - तथाभक्ति सहायता तथा  सेवा करो राजन यही परम भक्ति है..” चित्रगुप्त  के माध्यम से  राजा ने  बहुत बड़ा ज्ञान मिल  मिला (ज्ञान की बातें मिले तो ध्यान से सुने या पढ़े :) राजा अब समझ गया  दुसरो का कस्ट दूर करना दुनिया में   बड़ा कुछ भी नहीं है , जो लोग परोपकार करते हैं, वही भगवान् उसके सामान है और  वही  मनुष्य भगवान के सबसे प्रिय होते हैं। 
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